Supreme Court On Cash For Vote: सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 195 के तहत राज्य विधानमंडलों और संसद के सदस्यों को रिश्वतखोरी के मामलों में दी गई छूट को खत्म कर दिया है। 1998 के पीवी नरसिम्हा राव मामले के कारण निर्वाचित जनप्रतिनिधि वोट के बदले रिश्वतखोरी करने पर आपराधिक मुकदमे से बच जाते थे।

यदि कोई चुना हुआ जनप्रतिनिधि वोट के बदले रिश्वत ले तो उस पर मुकदमा चलना चाहिए या नहीं। देश की सर्वोच्च अदालत ने इस पर फैसला सुनाया है कि ऐसे जनप्रतिनिधियों को विधायी छूट नहीं मिलनी चाहिए। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने 1998 के अपने ही फैसले को पलट दिया है। अदालत ने वोट के बदले नोट मामले में सांसदों-विधायकों को आपराधिक मुकदमे से छूट देने से इनकार कर दिया और कहा कि संसदीय विशेषाधिकार के तहत रिश्वतखोरी की छूट नहीं दी जा सकती।


आइये जानते हैं नोट के बदले वोट मामले में 1998 का फैसला क्या था? क्या है नोट के बदले वोट मामला? रिश्वतखोरी के मामलों में जनप्रतिनिधियों को कौन सी विधायी छूट मिलती थी? अब सुप्रीम कोर्ट ने फैसला क्यों पलटा है?

नोट के बदले वोट मामले में 1998 का फैसला क्या था?

अभी तक निर्वाचित जनप्रतिनिधि वोट के बदले रिश्वतखोरी करने पर आपराधिक मुकदमे से बच जाते थे। इसकी वजह 1998 में आया सुप्रीम कोर्ट का पीवी नरसिम्हा राव बनाम संघ (1998) निर्णय था। तब पांच न्यायाधीशों की पीठ के फैसले में कहा गया था कि संसद में एक निश्चित तरीके से वोट देने के लिए रिश्वत लेने वाले सांसदों को संविधान द्वारा संरक्षित किया जाता है। अब सात न्यायाधीशों की पीठ ने अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 195 के तहत राज्य विधानमंडलों और संसद के सदस्यों को दी गई छूट को खत्म कर दिया है। बता दें कि अनुच्छेद 105 में संसद सदस्यों जबकि अनुच्छेद 195 में राज्य विधानमंडलों के सदस्यों के विशेषाधिकार दिए गए हैं। सांसद और विधायक को यह सुनिश्चित करने के लिए कुछ अधिकार और छूट दी जाती है कि वे सदन में अपने कर्तव्यों को प्रभावी ढंग से पूरा कर सकें।

नरसिम्हा राव मामले का आधार क्या था?

1991 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने जीत हासिल की थी और पीवी नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री बनाए गए थे। चुनाव के करीब दो साल बाद जुलाई 1993 में नरसिम्हा राव सरकार को अविश्वास मत का सामना करना पड़ा। हालांकि, सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव 14 वोटों से गिर गया जब पक्ष में 251 वोट और विरोध में 265 वोट पड़े। इसके बाद भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (पीसीए) के तहत एक शिकायत दर्ज की गई जिसमें आरोप लगाया गया कि अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ वोट करने के लिए कुछ सांसदों को रिश्वत दी गई थी।

जब मामला देश की सर्वोच्च अदालत पहुंचा जिसमें रिश्वत लेने के आरोपी सांसदों ने दो अहम तर्क प्रस्तुत किए। सबसे पहला तर्क था कि उन्हें संसद में उनके द्वारा डाले गए किसी भी वोट और ऐसे वोट डालने से जुड़े किसी भी कार्य के लिए संविधान के अनुच्छेद 105 के तहत छूट प्राप्त थी। दूसरा तर्क यह था कि सांसद सार्वजनिक पद पर नहीं होते हैं और इसलिए उन्हें पीसीए के दायरे में नहीं लाया जा सकता। न्यायालय इन तर्कों से सहमत हुआ और अप्रैल 1998 में तीन-दो के बहुमत से फैसला सुनाया। इसमें कहा गया था कि सांसदों को न केवल संसद में उनके द्वारा दिए गए वोटों के लिए, बल्कि मतदान से जुड़े किसी भी कार्य के लिए भी अभियोजन (मुकदमे) से छूट है। फैसले का मतलब यह था कि यदि किसी सांसद को संसद में वोट देने के लिए किसी भी तरह से रिश्वत दी गई थी, तो इस रिश्वत लेने का कृत्य अनुच्छेद 105 (2) द्वारा संरक्षित किया जाएगा और वे पीसीए के दायरे में नहीं आएंगे।


...तो दोबारा सुप्रीम कोर्ट कैसे पहुंचा मामला?

देश की सर्वोच्च अदालत में मामला दोबारा पहुंचे के पीछे सीता सोरेन का केस था। दरअसल, 2012 में झारखंड मुक्ति मोर्चा की विधायक सीता सोरेन पर राज्यसभा चुनाव 2012 में एक उम्मीदवार को वोट देने के लिए रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया था। बाद में जब चुनाव आयोग ने पाया कि राज्यसभा चुनावों में समझौता किया गया था तो चुनावों को रद्द कर दिया। इसी मामले में उनके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया गया। सीता सोरेन विधायी छूट का दावा करते हुए झारखंड उच्च न्यायालय पहुंच गईं। सुनवाई के दौरान सीता सोरेन ने तर्क दिया था कि राज्य विधानमंडल के सदन में उनके द्वारा डाले गए किसी भी वोट के लिए उन्हें अनुच्छेद 194(2) के तहत छूट प्राप्त है। नरसिम्हा राव मामले के हवाले से जेएमएम विधायक ने तर्क दिया था कि अनुच्छेद 194(2) के तहत छूट न केवल विधायिका में उनके द्वारा डाले गए किसी भी वोट के लिए बल्कि ऐसे वोट डालने से जुड़े सभी कार्यों के लिए भी है। झारखंड उच्च न्यायालय ने विधायी छूट का दावा करने वाली सोरेन की याचिका खारिज कर दिया।

मामला सात जजों की बेंच तक कैसे पहुंचा?

सीता सोरेन ने झारखंड उच्च न्यायालय के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। याचिका की सुनवाई करने वाली तीन जजों की बेंच ने माना कि मामले में उठाए गए मुद्दे व्यापक सार्वजनिक महत्व के हैं। लिहाजा मार्च 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने मामले को पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को भेज दिया।

सितंबर 2023 को मामले की सुनवाई कर रही पांच जजों की बेंच ने बताया कि झारखंड उच्च न्यायालय का फैसला और सीता सोरेन का बचाव दोनों नरसिम्हा राव वाले मामले पर निर्भर थे। इसके अलावा बेंच ने कहा कि नरसिम्हा राव मामले की फिर से जांच करनी पड़ सकती है। इस तरह से मामला सात न्यायाधीशों की पीठ को भेज दिया गया।


अब सुप्रीम कोर्ट ने क्या फैसला सुनाया है?

नोट के बदले वोट के इसी मामले में 4 मार्च 2024 को सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की संविधान पीठ ने बड़ा फैसला सुनाया है। पीठ में मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस ए एस बोपन्ना, जस्टिस एम एम सुंदरेश, जस्टिस पी एस नरसिम्हा, जस्टिस जेपी पारदीवाला, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल रहे। फैसला सुनाते हुए मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि पीठ के सभी जज इस मुद्दे पर एकमत हैं कि पीवी नरसिम्हा राव मामले मे दिए फैसले से हम असहमत हैं। नरसिम्हा राव मामले में अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने सांसदों-विधायकों को वोट के बदले नोट लेने के मामले में अभियोजन (मुकदमे) से छूट देने का फैसला सुनाया था।

मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि माननीयों को मिली छूट यह साबित करने में विफल रही है कि उन्हें अपने विधायी कार्यों में इस छूट की अनिवार्यता है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 में रिश्वत से छूट का प्रावधान नहीं है क्योंकि रिश्वतखोरी आपराधिक कृत्य है और ये सदन में भाषण देने या वोट देने के लिए जरूरी नहीं है। पीवी नरसिम्हा राव मामले में दिए फैसले की जो व्याख्या की गई है, वो संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के विपरीत है।


Updated On 4 March 2024 11:59 AM GMT
Azra News

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